15+ Famous Suryakant Tripathi Nirala Poems in Hindi | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविताएँ

Suryakant Tripathi Nirala Poems – Hello दोस्तों आप सभी का स्वागत है हमारी बेबसाईट gkhinditrick.in पर आज की इस Post में हम आपके लिए लेकर आए हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताएं सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी हिंदी साहित्य के प्रमुख कवियों में से एक है उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताये इस पोस्ट में दी गई है इसलिए हमारे इस आर्टिकल को अंत तक जरूर देखें।

Suryakant Tripathi Nirala Poems in Hindi

Table of Contents

Suryakant Tripathi Nirala Poems in Hindi

सच है – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

यह सच है

तुमने जो दिया दान दान वह
हिन्दी के हित का अभिमान वह
जनता का जन-ताका ज्ञान वह
सच्चा कल्याण वह अथच है
यह सच है

बार बार हार हार मैं गया
खोजा जो हार क्षार में नया
उड़ी धूल, तन सारा भर गया
नहीं फूल, जीवन अविकच है
यह सच है

प्राप्ति – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

तुम्हें खोजता था मैं
पा नहीं सका
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका

मुझे भर लिया तुमने गोद में
कितने चुम्बन दिये
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये

सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से
शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले
मिलीं – तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका

तुम हमारे हो – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते

ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया

पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हु‌ए
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हु‌ए

एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है
कहा – निर्दय, कहाँ है तेरी दया
मुझे दुख देने में जस क्या है

रात को सोते यह सपना देखा
कि वह कहते हैं तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा
कौन कहता है कि तुम हारे हो।

अब अगर को‌ई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुरंत भर लेना

प्रेम के प्रति


चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब
तुम अनादि तब केवल तम
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल

वसन वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया

प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार

मातृ वंदना – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर, माँ
मेरे श्रम सिंचित सब फल

जीवन के रथ पर चढ़कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर

जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रु जल धौत विमल
दृग जल से पा बल बलि कर दूँ
जननि, जन्म श्रम संचित पल

बाधाएँ आएँ तन पर
देखूँ तुझे नयन मन भर
मुझे देख तू सजल दृगों से
अपलक, उर के शतदल पर
क्लेद युक्त, अपना तन दूंगा
मुक्त करूंगा तुझे अटल
तेरे चरणों पर दे कर बलि
सकल श्रेय श्रम संचित फल

दीन – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न
हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न
अन्तिम आशा के कानों में
स्पन्दित हम – सबके प्राणों में

अपने उर की तप्त व्यथाएँ
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत की ओर ताककर
दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर
सह जाते हो

कह जाते हो
यहाँ कभी मत आना
उत्पीड़न का राज्य दुःख ही दुःख
यहाँ है सदा उठाना

क्रूर यहाँ पर कहलाता है शूर
और हृदय का शूर सदा ही दुर्बल क्रूर
स्वार्थ सदा ही रहता परार्थ से दूर
यहाँ परार्थ वही, जो रहे
स्वार्थ से हो भरपूर
जगतकी निद्रा, है जागरण
और जागरण जगत का – इस संसृति का

अन्त – विराम – मरण
अविराम घात – आघात
आह – उत्पात
यही जगजीवन के दिन-रात
यही मेरा, इनका, उनका, सबका स्पन्दन
हास्य से मिला हुआ क्रन्दन

यही मेरा, इनका, उनका, सबका जीवन
दिवस का किरणोज्ज्वल उत्थान
रात्रि की सुप्ति, पतन
दिवस की कर्म – कुटिल तम – भ्रान्ति
रात्रि का मोह, स्वप्न भी भ्रान्ति
सदा अशान्ति

गीत गाने दो मुझे – सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता

गीत गाने दो मुझे तो
वेदना को रोकने को

चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे
हाथ जो पाथेय थे, ठग
ठाकुरों ने रात लूटे
कंठ रूकता जा रहा है
आ रहा है काल देखो

भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर
देखते हैं लोग लोगों को
सही परिचय न पाकर
बुझ गई है लौ पृथा की
जल उठो फिर सींचने को

अभी न होगा मेरा अन्त – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष , सींच दूँगा मैं

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त
अभी न होगा मेरा अन्त

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण
इसमें कहाँ मृत्यु
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे
बालक-मन

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त

वर दे वीणावादिनी वर दे – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

वर दे, वीणावादिनि वर दे
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे

वर दे, वीणावादिनि वर दे

भिक्षुक – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

वह आता
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता
दो टूक कलेजे के करता , पछताता पथ पर आता

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी , सड़क पर खड़े हुए
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए

ठहरो अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा

तोड़ती पत्थर – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे
इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन, भर बंधा यौवन
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार

चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गई
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं, जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर

गहन है यह अंधकारा – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

गहन है यह अंधकारा
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर
नही शशधर, नही तारा

कल्पना का ही अपार समुद्र यह
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा

प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की
याद जिससे रहे वंचित गेह की
खोजता फिरता न पाता हुआ
मेरा हृदय हारा

मौन – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

बैठ लें कुछ देर
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के
तम-गहन-जीवन घेर

मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में
मन सरलता की बाढ़ में
जल-बिन्दु सा बह जाए

सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द

जागो फिर एक बार – ( सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता )

जागो फिर एक बार
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार

आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?
बन्द हो रहा गुंजार
जागो फिर एक बार

अस्ताचल चले रवि
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी

घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार
जागो फिर एक बार

पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें
रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार

सहृदय समीर जैसे
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो
सब सुप्ति सुखोन्माद हो
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमन
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ

तन-मन थक जायें
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार

उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट
गया दिन, आयी रात
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार, के बीते दिन पक्ष मास
वर्ष कितने ही हजार
जागो फिर एक बार

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